![]() |
| बायण माताजी मंदिर. नडेवा,कुम्भलगढ |
श्री बायण माताजी
सिसोदिया राजपूत युध्य में विजयश्री पाने के लिये बायण माताजी की आराधना प्राचीन काल से करते आये है । बायण माता मेवाड़ राजवंश की कुलदेवी है, मेवाड़ का राजवंश बायण माता की छत्र- छाया में त्याग एवं बलिदान के कई शौर्य पूर्ण इतिहास गढ़ चूका है । बायण माताजी माँ दुर्गा का ही रूप है, बाणासुर संहार के कारण माताजी को बाण माता के नाम से जाना जाता है ।
Saturday, 25 March 2017
Thursday, 23 March 2017
महाराणा प्रताप के बारे में रोचक तथ्य- Amazing Facts about Maharana Pratap
महाराणा
प्रताप मेवाड़ के शक्ितशाली सिसोदिया हिंदू शासक थे। सोलहवीं शताब्दी के
राजपूत शासकों में महाराणा प्रताप ऐसे शासक थे, जिन्होंने अकबर को छठी का
दुध याद दिलवा दिया था । हालांकि महाराणा प्रताप जितने बहादुर थे, उतना ही
निडर उनका
चेतक घोड़ा था। यह अरबी मूल का घोड़ा महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय था।
हल्दी घाटी-(जून 1576) के प्रसिद्ध युद्ध में चेतक ने वीरता का जो परिचय
दिया
था, वो इतिहास में अमर है।
1. महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था. प्रताप सिंह इनका और राणा उदय सिँह इनके पिता का नाम था.
2. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था। प्रताप का वजन 110 किलो और हाईट 7 फीट 5 इंच थी । महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं
3. महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थीं। कहा जाता है कि उन्होंने ये सभी शादियां राजनैतिक कारणों से की थीं।
4. बहलोल खान का सामना प्रताप से हुआ तो प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही झटके के प्रबल प्रहार से बहलोल खान को टोप, बख्तर, घोड़े की पाखट, घोड़े सहित काट दिया
” प्रताप के एक वार से बहलोल खां के सिर से घोड़े तक हो गए थे दो टुकड़े” बदायूनी लिखते हैं कि देह जला देने वाली धूप और लू सैनिकों के मगज पिघला देने वाली थी। चारण रामा सांदू ने आंखों देखा हाल लिखा है कि प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। वह झुककर बच गया, महावत मारा गया। बेकाबू हाथी को मानसिंह ने संभाल लिया। सबको भ्रम हुआ कि मानसिंह मर गया। दूसरे ही पल बहलोल खां पर प्रताप ने ऐसा वार किया कि सिर से घोड़े तक के दो टुकड़े कर दिए।
5. इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे ।
6. हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक थे और अकबर के पास 85000 सैनिक. इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे, अबुल फजल ने कहा कि यहां जान सस्ती और इज्जत महंगी थी।
7. प्रताप के घोड़े चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा लगाया जाता था. ताकि दूसरी सेना के हाथी कंफ्यूज रहें ।
8. प्रताप का घोड़ा, चेतक हवा से बातें करता था । उसने हाथी के सिर पर पैर रख दिया था और घायल प्रताप को लेकर 26 फीट लंबे नाले के ऊपर से कूद गया था । अपना एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए चेतक बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।
9 श्री महाराणा प्रताप जी के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुवा हैं जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है ।
10. कहते हैं कि अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए 6 शान्ति दूतों को भेजा था, जिससे युद्ध को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया जा सके, लेकिन महाराणा प्रताप ने यह कहते हुए हर बार उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया कि राजपूत योद्धा यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता ।
11 . महाराणा प्रताप हमेशा दो तलवार रखते थे एक अपने लिए और दूसरी निहत्थे दुश्मन के लिए ।
12 . अकबर ने एक बार कहा था की अगर महाराणा प्रताप और जयमल मेड़तिया मेरे साथ होते तो हम विश्व विजेता बन जाते ।
13 . श्री महाराणा प्रताप सिंह जी अस्त्र शस्त्र की शिक्षा "श्री जैमल मेड़तिया जी" ने दी थी जो 8000 राजपूत वीरो को लेकर 60000 से लड़े थे। उस युद्ध में 48000 मारे गए थे जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे |
14. आज हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहां की जमीनो में तलवारे पायी जाती हैं ।
15 . जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थेतब उन्होने अपनी माँ सेपूछा कि हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आए| तब माँ का जवाब मिला ” उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना ” बदकिस्मती से उनका वो दौरा रद्द हो गया था | “बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘किताब में आप ये बात पढ़ सकते है |
16 . मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था वो श्री
महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा जी बिना भेद भाव के उन के साथ रहते थे आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत है तो दूसरी तरफ भील |
मरने से पहले श्री महाराणाप्रताप जी ने अपना खोया हुआ 85 % मेवाड फिर से जीत लिया था । सोने चांदी और महलो को छोड़ वो 20 साल मेवाड़ के जंगलो में घूमे |
1. महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था. प्रताप सिंह इनका और राणा उदय सिँह इनके पिता का नाम था.
2. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था। प्रताप का वजन 110 किलो और हाईट 7 फीट 5 इंच थी । महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं
3. महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थीं। कहा जाता है कि उन्होंने ये सभी शादियां राजनैतिक कारणों से की थीं।
4. बहलोल खान का सामना प्रताप से हुआ तो प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही झटके के प्रबल प्रहार से बहलोल खान को टोप, बख्तर, घोड़े की पाखट, घोड़े सहित काट दिया
” प्रताप के एक वार से बहलोल खां के सिर से घोड़े तक हो गए थे दो टुकड़े” बदायूनी लिखते हैं कि देह जला देने वाली धूप और लू सैनिकों के मगज पिघला देने वाली थी। चारण रामा सांदू ने आंखों देखा हाल लिखा है कि प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। वह झुककर बच गया, महावत मारा गया। बेकाबू हाथी को मानसिंह ने संभाल लिया। सबको भ्रम हुआ कि मानसिंह मर गया। दूसरे ही पल बहलोल खां पर प्रताप ने ऐसा वार किया कि सिर से घोड़े तक के दो टुकड़े कर दिए।
5. इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे ।
6. हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक थे और अकबर के पास 85000 सैनिक. इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे, अबुल फजल ने कहा कि यहां जान सस्ती और इज्जत महंगी थी।
7. प्रताप के घोड़े चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा लगाया जाता था. ताकि दूसरी सेना के हाथी कंफ्यूज रहें ।
8. प्रताप का घोड़ा, चेतक हवा से बातें करता था । उसने हाथी के सिर पर पैर रख दिया था और घायल प्रताप को लेकर 26 फीट लंबे नाले के ऊपर से कूद गया था । अपना एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए चेतक बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।
9 श्री महाराणा प्रताप जी के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुवा हैं जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है ।
10. कहते हैं कि अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए 6 शान्ति दूतों को भेजा था, जिससे युद्ध को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया जा सके, लेकिन महाराणा प्रताप ने यह कहते हुए हर बार उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया कि राजपूत योद्धा यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता ।
11 . महाराणा प्रताप हमेशा दो तलवार रखते थे एक अपने लिए और दूसरी निहत्थे दुश्मन के लिए ।
12 . अकबर ने एक बार कहा था की अगर महाराणा प्रताप और जयमल मेड़तिया मेरे साथ होते तो हम विश्व विजेता बन जाते ।
13 . श्री महाराणा प्रताप सिंह जी अस्त्र शस्त्र की शिक्षा "श्री जैमल मेड़तिया जी" ने दी थी जो 8000 राजपूत वीरो को लेकर 60000 से लड़े थे। उस युद्ध में 48000 मारे गए थे जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे |
14. आज हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहां की जमीनो में तलवारे पायी जाती हैं ।
15 . जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थेतब उन्होने अपनी माँ सेपूछा कि हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आए| तब माँ का जवाब मिला ” उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना ” बदकिस्मती से उनका वो दौरा रद्द हो गया था | “बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘किताब में आप ये बात पढ़ सकते है |
16 . मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था वो श्री
महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा जी बिना भेद भाव के उन के साथ रहते थे आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत है तो दूसरी तरफ भील |
मरने से पहले श्री महाराणाप्रताप जी ने अपना खोया हुआ 85 % मेवाड फिर से जीत लिया था । सोने चांदी और महलो को छोड़ वो 20 साल मेवाड़ के जंगलो में घूमे |
Monday, 20 March 2017
चैत्र नवरात्र 2017 | Chaitra Navratri 2017 |
चैत्र शुक्ल
पक्ष के नवरात्रों का आरंभ वर्ष 28 मार्च 2017 के दिन से ही होगा । इस
बार अमावस्या और नवरात्र एक ही दिन पड़ रहे हैं। ऐसे में भक्तो में
भ्रम है कि वह सुबह अमावस्या के पितृ कार्य करें या फिर नवरात्र की कलश
स्थापना। पंडितों के अनुसार करीब 20-22 साल के बाद ऐसा संयोग पड़ा है जब
तिथियों में इस तरह का फेर देखा जा रहा है।
पंचांगों के अनुसार 28 मार्च को सुबह 8:27 बजे से चैत्र अमावस्या समाप्त हो रही है। वहीं चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा तिथि इसी दिन 8:28 बजे से शुरू हो रही है, जो अगले दिन यानी 29 मार्च को सुबह 6:25 बजे समाप्त हो जाएगी।
देश में में बड़ी संख्या में लोग अमावस्या को पितरों के लिए दान पुण्य करते हैं और गाय को रोटी देते हैं, जबकि नवरात्र पर कलश स्थापना होती है।
घटस्थापना :-
चैत्रनवरात्र में घटस्थापना का सर्वश्रेष्ठ मुर्हुत दोपहर 12 :08 से 12: 56 तक एवं चौघडिया मुर्हुत प्रातः 09 : 29 से 02: 04 बजे तक रहेगा ।
चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों के आरम्भ से हिंदु नवसंवत्सर का आरंभ भी होता है। चैत्र मास के नवरात्र को ‘वार्षिक नवरात्र’ कहा जाता है। इन दिनों नवरात्र में शास्त्रों के अनुसार कन्या या कुमारी पूजन किया जाता है। कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का विधान है। नवरात्रि के पावन अवसर पर अष्टमी तथा नवमी के दिन कुमारी कन्याओं का पूजन किया जाता है।
नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है। नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनों में लोग नियमित रूप से पूजा पाठ और व्रत का पालन करते हैं। दुर्गा पूजा के नौ दिन तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि धार्मिक किर्या पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है। इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा जी की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है। वर्ष में दो बार की जाने वाली दुर्गा पूजा एक चैत्र माह में और दूसरा आश्विन माह में की जाती है।
चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है। व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है। इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है। घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है. तथा "दुर्गा सप्तशती" का पाठ किया जाता है। पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए।
दुर्गा पूजा के साथ इन दिनों में तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है। बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए। माता के इन नौ दिनों में ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है। इन दिनों में मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है. नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है।
तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय ओर भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते है। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्व कहा गया है ।
पंचांगों के अनुसार 28 मार्च को सुबह 8:27 बजे से चैत्र अमावस्या समाप्त हो रही है। वहीं चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा तिथि इसी दिन 8:28 बजे से शुरू हो रही है, जो अगले दिन यानी 29 मार्च को सुबह 6:25 बजे समाप्त हो जाएगी।
देश में में बड़ी संख्या में लोग अमावस्या को पितरों के लिए दान पुण्य करते हैं और गाय को रोटी देते हैं, जबकि नवरात्र पर कलश स्थापना होती है।
घटस्थापना :-
चैत्रनवरात्र में घटस्थापना का सर्वश्रेष्ठ मुर्हुत दोपहर 12 :08 से 12: 56 तक एवं चौघडिया मुर्हुत प्रातः 09 : 29 से 02: 04 बजे तक रहेगा ।
चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों के आरम्भ से हिंदु नवसंवत्सर का आरंभ भी होता है। चैत्र मास के नवरात्र को ‘वार्षिक नवरात्र’ कहा जाता है। इन दिनों नवरात्र में शास्त्रों के अनुसार कन्या या कुमारी पूजन किया जाता है। कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का विधान है। नवरात्रि के पावन अवसर पर अष्टमी तथा नवमी के दिन कुमारी कन्याओं का पूजन किया जाता है।
नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है। नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनों में लोग नियमित रूप से पूजा पाठ और व्रत का पालन करते हैं। दुर्गा पूजा के नौ दिन तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि धार्मिक किर्या पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है। इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा जी की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है। वर्ष में दो बार की जाने वाली दुर्गा पूजा एक चैत्र माह में और दूसरा आश्विन माह में की जाती है।
चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है। व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है। इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है। घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है. तथा "दुर्गा सप्तशती" का पाठ किया जाता है। पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए।
दुर्गा पूजा के साथ इन दिनों में तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है। बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए। माता के इन नौ दिनों में ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है। इन दिनों में मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है. नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है।
तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय ओर भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते है। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्व कहा गया है ।
Sunday, 19 March 2017
बायण माताजी के बारे में, भाग - 1
बायण माताजी
बायण माताजी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित है । बाण माताजी मेवाड़ से जुड़े हुए ठिकानों जैसे सलुम्बर , बांसी , आमेट , बेंगु , खुराबड, कानोर में कुलदेवी व संरक्षक देवी के रूप में पूजा जाता है ।
मेवाड़ के सिसोदिया अपने शासनकाल में अम्बा माताजी की पूजा करते थे , जो बाद में कलिका माताजी के नाम से पूजी जाने लगी । जहा पर चित्तौड में कलिका माताजी का मंदिर अभी मौजूद है । कलिका माताजी के मंदिर के पास ही बाण माताजी , अन्नपूर्णा माताजी व तुलजा भवानी का मंदिर स्थित है । यदि इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाये तो कालिका माताजी की स्थापना 7 वी शताब्दी में बप्पा रावल के द्वारा की गईं थी । बाण माताजी की स्थापना भी 7 वी शताब्दी में बप्पा रावल के द्वारा की गईं थी । अन्नपूर्णा माताजी की स्थापना 13वी शताब्दी में महाराणा हमीर के द्वारा की गयी थी । एवं तुलजा भवानी की स्थापना 15 वी शताब्दी में बनवीर के द्वारा की गयी थी । इन मंदिरों के स्थापना का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है ।
बाण माताजी को अलग- अलग क्षेत्रों में अलग - अलग नामो जैसे बाण , बायण , बेण , बाणेश्वरी , बायणेश्वरी , ब्राह्मणी,वरदायिनी व कन्या कुमारी के नाम से जाना जाता है ।वही मातेश्वरी की अलग - अलग स्थानों पर अलग - अलग सवारिया है जैसे माताजी के मुख्य पाट स्थान चित्तोड़ में हंस की सवारी है जिससे मातेश्वरी को हंसवाहिनी के नाम से जाना जाता है । सलूम्बर राजमहल में विरामान बायण माताजी सहित कई मंदिरों में शेर की सवारी है । सलुम्बर राजमहल में विराजमान बायण माताजी को शेर सवारी होने से युध्य की देवी के रूप में पूजा जाता है । यही कारण है की सलुम्बर के चूंडावत कई युध्यो के में अपनी वीरता व बलिदान का लोहा मनवा चुके है , व मेवाड़ की सेना में उन्हें हरावल में लड़ने का विशेषाधिकार प्राप्त था । प्रतापगढ़ में स्थित बाण माताजी की अश्व (गोडे ) की सवारी है व केलवाडा (कुम्भलगढ़) में स्थित बाण माताजी का मंदिर जिसकी स्थापना महाराणा हमीर ने की थी में भी माताजी की अश्व सiवारी है । देचू स्थित 300 साल पूर्व निर्मित मंदिर में श्री बाण माताजी भैंसे पर सवार होकर बिस भुजा धारण किए हुए हैं ।सिलोईया सिरोही स्थित बाण माताजी हाथी पर सवार है । इस प्रकार माताजी की महिमा का गुणगान करना बहुत ही आनन्द प्रकट करता है । कोई भी भक्त अनुमान नही लगा सकता कि एक देवी इतनी सवारी धारण कर सकती हैं
जिससे बायण माताजी की पहचान को लेकर भक्त भ्रमित हो जाते है । वही बाण माताजी अलग- अलग स्थानों पर अलग- अलग भुजाओ के साथ विराजमान है, माताजी ने अलग - अलग मंदिरों में अष्ट भुज, षष्टभुज , चतुर्भुज व बीस भुजाओ के साथ विराजमान है ।
बाण माताजी का पुराना स्थान गिरनार ( गुजरात) में था लेकिन प्राचीनकाल में चित्तौड के महाराणा ने गुजरात के राजा पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया व महाराणा ने शर्त रखी की वे अपनी राजकुमारी का विवाह महाराणा से कर दे । राजकुमारी बाण माताजी की परम भक्त थी और वह महाराणा से विवाह रचाना चाहती थी तो माताजी की कृपा से राजकुमारी का विवाह महाराणा से हो गया । जिससे बाण माताजी गिरनार को छोड कर राजकुमारी के साथ चित्तोडगढ पधार गये । हालाकि गिरनार में भी अभी बाण माताजी का मन्दिर मौजूद है ।
©मयूराज सिंह चूंडावत, डूंगरपुर
Tuesday, 14 March 2017
बप्पा रावल को बाण माताजी का आशीर्वाद
बप्पा रावल को बाण माताजी का आशीर्वाद
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ का गुहिल राजवंश अपने शौर्य पराक्रम
कर्तव्यनिष्ठा, और धर्म पर अटल रहने वाले 36 राजवंशों में से एक है । गुहिल
के वंश क्रम में भोज, महेंद्रनाग, शीलादित्य, अपराजित महेंद्र द्वितीय एवं
कालाभोज हुए । आठवी शताब्दी में कालाभोज ने मेवाड़ राज्य की स्थापना की जो इतिहास में बापा रावल के नाम से प्रसिद्ध हुए । वह माँ बायण के
अन्नयः भक्त थे ।
बायणमाता गुहिल राजवंश ही नहीं इस राजवंश से निकली दूसरी शाखा सिसोदियां और
उनकी उपशाखाओं की भी कुलदेवी रही है । कालाभोज बापा रावल के बाद खुम्माण गद्दी पर बैठे , जिनका नाम मेवाड़ के इतिहास में प्रसिद्ध है। खुम्माण ने 24 युद्ध किये और वि. स. 869 से 893 तक राज्य किया । दलपति विजय कृत खुम्माण रसों में
माँ बायण की बापा रावल पर विशेष कृपा का उल्लेख मिलता है – श्री बायण भगवती, भाय पूज्यां भय हरंती ।
चढ़े सिंध विचरंती, मात मुज मया करंती ॥
कालिका न झबुक्क, ज्योति काया जलहलती
सषीनाथ साबती, षलां दलती षल हलती ॥
हसंती रमंती गहक्कती, गहलोत वंश वधारती ।
सु प्रसन्न माय ए तो सदा, सघला काज सुधारती ॥
भाव सहित अर्चना करने पर भगवती बायणमाता भय से मुक्ति दिलाती
है । वह सिंह की पीठ पर सवार होकर विचरण करती है । माता बायण मुझ पर दया
करती है । कालिकादेवी काली होने से प्रकाशरहित होती है, पर उसके शरीर से
ज्योति (प्रकाश) झिल मिलता रहता है । वह अखण्ड (शाश्वत) मित्र है, अग्नि
रूप है,शत्रुओं का सर्वनाश करती है । हंसती खेलती, किलकारी करती हुई गहलोत
वंश की वृद्धि (उन्नति) करती है । प्रसन्न होने पर यह माता सदा सभी कार्यों
को सानन्द सम्पन्न करती है ।
कूंत षग्ग कोमंड, बाण तरगस्स बगस्सें ।
कुंठ ढाल कट्टार, तिण रिस्म थाट तरस्सें ॥
जालिम जांणें जोध, आप आवध बंधावें ।
ग्रहि भुजकरि मजबूत, माय मोतियाँ बधावें ॥
श्री हत्थ तिलक जस रो करें । माथ पुत्र मोटो करे ।
भाले, तलवार, धनुष बाण, तरकस प्रदान किये । कमठ (कछुवे की पीठ से बनी) ढाल कमा और कटार जो शत्रु समूह को काटती है, बापा को वीर योद्धा जान कर देवी ने अपने हाथों से धारण कराया । उसकी बाह पकड़कर शक्ति दान करते हुए माता ने उसका मोतियों से वर्धापन किया । अर्थात उसको राजा बनाया अपने हाथ से तिलक लगाकर माँ बायण ने अपने पुत्र को बड़ा (महान) बनाया और शक्ति के द्वारा दिया हुआ भूमि का भार सामंत बापा ने भुजा पर धारण किया ।भूमि रो भार बापा भुजें । सगति रो दिध सामंत रें ॥
© मयूराज सिंह चूंडावत, डूंगरपुर
और पढ़े ..... मुख्य पृष्ठ
Monday, 13 March 2017
बायण मातजी ने दिया था महाराणा प्रताप को चमत्कार
चित्र में महाराणा प्रताप युद्ध में जाने से पूर्व माँ बायण का आशीष प्राप्त करते हुए ।
मित्रो सभी को जय माँ बायण की अरज होवे सा.......महाराणा प्रताप व अकबर की
एक कहानी जो मैने पापा हुकुम से सुनी थी, बहुत दिनो से सोच रहा था आप सभी
के साथ शेयर करु, आखिर कर आज शेयर कर ही देता हुँ....बात उन दिनो कि है जब
महाराणा प्रताप एवम अकबर के बीच युध्य चल रहा था, ,महाराणा प्रताप अकबर की
तलाश मे वनो मे भटकते हुए उज्जैन नगरी मे पहुंच गये वहा वे एक गाँव से
गुजर रहे थे तभी वहा एक महिला महाराणा प्रताप को देख कर महाराणा की आवभगत करती है तथा
महाराणा से निवेदन करती हे कि आप मेरे घर पधार कर विश्राम करे, महाराणा
काफी थक चुके थे अत:वे उस महिला के घर जाने के लिये तैयार हो गये जब
महाराणा वहा पहुँचते है तो महिला महाराणा के लिये बिस्तर लगाती है तथा आराम
फरमाने का निवेदन करती हुई कहती है कि आप जैसे महाराणा के चरण मेरे घर पर
पडने से मै धन्य हो गई, यह मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे घर पधारे....और निवेदन करती है कि आप काफी थक चुके है और आपको भुख भी लगी होगी अत: मेरा पास के गाँव मे निमंत्रण हे मे वहा जाकर भोजन कर आप के लिये थाल लेकर आती हुँ तब तक आप विश्राम करे मै अभी गयी और अभी आयी......महाराणा की आज्ञा लेकर वह महिला प्रस्थान करने के लिये घर से बाहर निकलती है तथा परकोटे के उपर चढ कर बाज का रुप धारण कर वहा से उड जाती है ।वह महिला पास के गाँव मे शादी समारोह मे पहुँच कर महिला का रुप धारण कर लेती है तथा सभी सामाजिक रीती रिवाज को पुरा कर भोजन ग्रहण करती है व महाराणा के लिये थाल परोसकर वापिस बाज का रुप धारण कर उड जाती है तथा वापिस उसी परकोटे पर पहुच कर महिला का रुप धारण कर लेती है महाराणा प्रताप घर मे आराम करते हुए उस दृश्य को देख रहे थे (वह महिला डाकिनी/ तांत्रिक थी) ......
तथा महाराणा को भोजन परोसकर प्रेम पुर्वक भोजन कराने के बाद महाराणा को पधारने का प्रयोजन पुँछती है तब महाराणा कहते है कि अकबर हाथ धोकर मेरे पिछे पडा है तथा वह मुझे अपने अधीन करना चाहता है लेकिन मुझे उसकी अधीनता स्वीकार नही है व मै अकबर की तलाश मै निकला हुआ हुँ....
वह महिला महाराणा से निवेदन करती है कि यदि आपकी आज्ञा हो तो मै आपको अकबर के पास ले जाकर छोड दु । महाराणा उसकी बात से सहमत हो जाते है तो वह महिला फिर से बाज का रुप धारण कर महाराणा प्रताप को अपने उपर बैठा कर उडती हुई अकबर के तम्बु के उपर पहुँचती है महाराणा वहा देखते है कि वहा तम्बु के चारो ओर कठोर पहरा है व अकबर के सैनिक तम्बु के चारो ओर चक्कर लगा रहे है व अकबर अपनी बेगम के साथ आराम से सो रहा है । महाराणा तम्बु के उपर से छेद कर अकबर के तम्बु मे प्रवेश करते है , अकबर गहरी निन्द मे सो रहा था महाराणा अकबर के समीप जा कर ...........अकबर का वध करने के लिये तलवार उपर उठाते हे तभी अचानक आवाज आती है
ठहर
महाराणा वहा रुक कर चारो तरफ देखते है वहा कोई नही था.......महाराणा फिर से अकबर का वध करने के लिये तलवार उपर उठाते हे तभी फिर से आवाज आती है
ठहर
महाराणा के फिर से चारो तरफ देखने पर वहा कोई नही था....
महाराणा तिसरी बार अकबर का वध करने के लिये तलवार उपर उठाते हुए सोचते है कि शायद मेरी अंतर आत्मा मुझे इस कार्य को करने के लिये रोक रही है ईसलिये शायद यह आवाज मुझे अनायास ही सुनाई दे रही है व महाराणा मजबुत ईरादे के साथ तिसरी बार तलवार उठाते है तो फिर से ठहर की आवाज आती है......
महाराणा ने रुक कर कहा कौन हे तब आवाज आयी हम अकबर के 24 पीर है अकबर ईस समय आराम कर रहा है अत: हम उसकी रक्षा कर रहे है.....उस समय महाराणा प्रताप को क्रोध आता है क्योंकि वो अकबर की कुटनीती से तंग आ चुके थे व भुखे प्यासे वन मे भटक रहे थे व अपने अकेले होने के अहसास पर गुस्से मे कहते है कि तुम अकबर के पीर अकबर की रक्षा कर रहे हो तो मेरी माँ कहाँ गयी......तभी अकबर के पीर ही बोले पिछे मुड कर देख.....
जैसे ही महाराणा पिछे मुडे वहाँ कुलदेवी माँ मौजुद थे और उन्हौने महाराणा से कहाँ कि आप अकबर का वध मत करो सोये हुए व निहत्थो पर वार करना क्षत्रिय धर्म के खिलाफ है आप अपने यहाँ आने की कोई निशानी अकबर के पास छोड जाओ......तब महाराणा अकबर की एक मुंछ काट कर खत लिख कर अकबर के तकिये के निचे रख देते हे कि मै महाराणा प्रताप तेरे पास आया था व अगर मै चाहता तो तेरा वध कर देता लेकिन तुझे चेतावनी दे कर छोड रहा हु तु अपने डेरे समेट ले और यहा से रवाना हो जा..... तब से अकबर रोज निन्द मे महाराणा प्रताप आये उस डर से उचक कर खडा हो जाता तभी से किवन्द्ती है कि
"अकबर सोतो ओझके जाण सिराणे साप"
तो मित्रो सार यह है कि जंग कितनी भी बडी हो हम मेहनत, संघर्ष व माँ के आर्शीवाद से नेक रस्ते पर चलते हुए जीत सकते है माँ तो हमेशा हमारी साथ है लेकिन रास्ते हमारे खराब हे.....
भालों अरि चेतक असवारी , बायण चाले संग ।
भोम भूप ने अति प्यारी , राणा प्रताप ने रंग ।।
अकबर मारण पाथळ गया , अध् रात आगरा माहि ।
चौबीस पीर चोकिया , बायण आया उण ठाहि ।।
रक्षा कीन्ही पाथळ री , थू सेवक समर लड़ी ।
जय श्री बाण माताजीरक्षा थारी राखसु , पीछे पाथळ मैं खड़ी ।।
जय श्री एकलिंग जी
जय श्री सोनाणा खेतलाजी
जय मेवाड़ जय महाराणा प्रताप
इस कहानी के सन्दर्भ में आपके सुझाव आमंत्रित है......
© मयूराज सिंह चूंडावत, डूंगरपुर
और पढ़े ..... मुख्य पृष्ठ
बाणासुर और बायण माताजी का प्राचीन इतिहास
पुराणों
के अनुसारहजारों वर्षों पूर्व बाणासुर नाम का एक दैत्य जन्मा जिसकी भारत
में अनेकराजधानियाँ थी। पूर्व में सोनितपुर (वर्तमान तेजपुर, आसाम) में
थीउत्तर में बामसू (वर्तमान लमगौन्दी, उत्तराखंड) मध्यभारत में बाणपुर
मध्यप्रदेश में भी बाणासुर का राज था। बाणासुर बामसू में रहता था।बाणासुर
को कही कहीराजा भी कहा गया है और उसके मंदिर भी मौजूद हैं जिसको आज भी
उत्तराखंड के कुछगावों में पूजा जाता है।
संभवतः
प्राचीनसनातन भारत में मनुष्य जब पाप के रास्ते पे चलकरअतियंत अत्याचारी
हो जाता था तब उसे असुर की श्रेणी में रख दिया जाता था क्यूंकिलोगों को
यकीन हो जाता था की अब उसका काल निकट है और वह अवश्य ही प्रभु के हाथो
मरजायेगा। यही हाल रावन का भी था वह भी एक महाज्ञानी-शक्तिशाली-इश्वर भक्त
राजा था, किन्तु समय के साथ वह भी अभिमानी हो गया था औरउसका भी अंत एक असुर
की तरह ही हुआ। किन्तु यह भी सत्य है की रावण को आज भी बहुतसे स्थानों पैर
पूजा जाता है, दक्षिण भारत-श्रीलंका के साथ साथ उत्तर भारत में भी उसके
कई मंदिर हैं जिनमे मंदसौर(मध्यप्रदेश) में भी रावन की एक विशाल प्रतिमा
हैजिसकी लोग आज भी पूजा करते हैं।
बाणासुर
भगवान्शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे हजारों भुजाओं की
शक्ति प्राप्तथी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर ने कहा
की आप मेरे किले केपहरेदार बन जाओ। यह सुन शिवजी का बड़ा ग्लानी-अपमान हुआ
लेकिन उन्होंने उसका वरदानमन लिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर
परम बलशाली होकर सम्पूर्ण भारत औरपृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा
और कुछ देवता तक भयभीत रहने लगे। बाणासुरअजय हो चुका था, कोई उससे युद्ध
करने आगे नहीं आता था। एक दिन बाणासुर को अचानक युद्ध करने की तृष्णाजागी।
तब उसने स्वयं शिवजी से युद्ध करने की इच्छा करी। बाणासुर के अभिमानी भाव
कोदेख कर शिवजी ने उससे कहा की वो उससे युद्ध नहीं करना चाहते क्यूंकि वो
उनका शिष्यहै, किन्तु उन्होंने उसे कहा की तुम विचलित न होवोतुम्हे पराजित
करने वाला व्यक्ति कृष्ण जनम ले चुका है। यह सुन कर बाणासुर भयभीतहो गया।
और उसने शिवजी की तपस्या करी और अपनी हजारों भुजाओं से कई सौ मृदंग
बजायेजिससे शिवजी प्रसन्न हो गए। बाणासुर ने उनसे वरदान माँगा की वे कृष्ण
से युद्ध मेंउसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे और हमेशा की
तरह उसके किले केपहरेदार बने रहेंगे।
समय बीतता
गया औरश्री कृष्ण ने द्वारिका पे अधिकार करा और एक शक्तिशाली सेना बना ली।
उधर बाणासुरके एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। उषा से शादी के लिए बहुत से
राजा महाराजा आएकिन्तु बाणासुर सबको तुच्छ समझकर उषा के विवाह के लिए मन कर
देता और अभिमानपूर्वकउनका अपमान कर देता था। बाणासुर को भय था की उषा उसकी
इच्छा के विपरीतकिसी से विवाह न कर ले इसलिए बाणासुर ने एक शक्तिशाली
अग्निगड़(तेजपुर, वर्तमान आसाम) बनवाया और उसमे उषा को कैद करनज़रबंद दिया।

अब
इसे संयोग कहोया श्री कृष्ण की लीला, एक दिन उषा को स्वप्न में एक सुन्दर
राजकुमारदिखा यह बात उसने अपनी सखी चित्रलेखा को बताई। चित्रलेखा को सुन्दर
कला-कृतियाँबनाने का वरदान प्राप्त था, उसने अपनी माया से उषा की आँखों
में देख कर उसके स्वप्न दृश्य कोदेख लिया और अपनी कला की शक्ति से उस
राजकुमार का चित्र बना दिया। चित्र देख उषाको उससे प्रेम हो गया और उसने
कहा की यदि ऐसा वर उसे मिल जाये तो ही तो ही उसेसंतोष होगा। चित्रलेखा ने
बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्धका है। तब चित्रलेखा
ने अपनी शक्ति से अनिरुद्ध को अदृश्य कर के उषा के सामनेप्रकट कर दिया तब
दोनों ने ओखिमठ नमक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहाँ आजभी
उषा-अनिरुद्ध नाम से एक मंदिर व्याप्त है। जब यह खबर बाणासुर को मिली तो
उसेबड़ा क्रोद्ध आया और उसने अनिरुद्ध और उषा को कैद कर लिया।
जबकई
दिनों तक अनिरुद्ध द्वारिका में नहीं आया तो श्री कृष्ण और बलराम व्याकुल
होउठे और उन्होंने उसकी तलाश शुरू की और अंत में जब उन्हें नारदजी द्वारा
सत्य का पता चला तो उन्होंने बाणासुर परहमला कर दिया। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ
जिसमे दोनों ओर के महावीरों ने शौर्य का परिचयदिया। अंत में जब बाणासुर
हारने लगा तो उसने शिवजी की आराधना करी।
भक्तके
याद करने से शिवजी प्रकट हो गए और श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। युद्ध
कितना विनाशक था इसका ज्ञान इसीबात से हो जाता है की शिवजी अपने सभी
अवतारों और साथियों रुद्राक्ष, वीरभद्र, कूपकर्ण, कुम्भंदा सहित बाणासुर के
सेनापति बनेऔर साथ में सेना के सबसे आगे नंदी पे उनके पुत्र श्री गणेश और
कार्तिकेय भी थे।उधर दूसरी तरफ श्री कृष्णा के साथ बलराम, प्रदुम्न,
सत्याकी, गदा, संबा, सर्न,उपनंदा, भद्रा अदि कई योद्धा थे।इस भयंकर
युद्धमें शिवजी ने श्री कृष्ण की सेना के असंख्य सेनिको का नाश किया और
श्री कृष्ण नेबाणासुर के असंख्य सैनिको का नाश किया। शिवजी ने श्री कृष्ण
पर कई अस्त्र-शस्त्रचलाये जिनसे श्री कृष्ण को कोई हानि नहीं हुयी और श्री
कृष्ण ने जो अस्त्र-शास्त्रशिवजी पर चलाये उनसेशिवजी को कोई हनी नहीं हुयी।
तब अंत में शिवजी ने पशुपतास्त्र से श्री कृष्ण पर वरकिया तो श्री कृष्ण
ने भी नारायणास्त्र से वर किया जिसका किसी को कोई लाभ नहींहुआ। फिर श्री
कृष्ण ने शिवजी को निन्द्रास्त्र चला के कुछ देर के लिए सुला दिया। इससे
बाणासुर की सेना कमजोरहो गयी। प्रदुम्न ने कार्तिकेय को घायल कर दिया तो
दूसरी तरफ बलराम जी ने कुम्भंदाऔर कूपकर्णको घायल कर दिया। यह देख बाणासुर
अपने प्राण बचा कर भागा। श्री कृष्ण ने उसे पकड़कर उसकी भुजाएँ कटनी शुरू कर
दी जिनसे वह अभिमान करता था।
जबबाणासुर की सारी
भुजाएँ कट गयी थी और केवल चार शेषरह गयी थी तब शिवजीअचानक जाग उठे और श्री
कृष्ण द्वारा उन्हें निंद्रा में भेजने और बाणासुर की दशाजानकर बोहोत
क्रोद्धित हुए। शिवजी ने अंत में अपना सबसे भयानक शस्त्र ''शिवज्वर अग्नि''
चलाया जिससे सारा ब्रह्माण अग्नि मेंजलने लगा और हर तरफ भयानक जावर
बिमारिय फैलने लगी। यह देख श्री कृष्ण को न चाहते हुए भी अपना आखिरी
शास्त्र ''नारायनज्वर शीत'' चलाया। श्री कृष्ण के शास्त्र से ज्वरका तो नाश
हो गया किन्तु अग्नि और शीत का जब बराबर मात्र में विलय होता है
तोसम्पूर्ण श्रृष्टि का नाश हो जाता है।
जब पृथ्वी
और ब्रह्माण बिखरने लगे तब नारद मुनि और समस्त देवताओं, नव-ग्रहों, यक्ष
और गन्धर्वों ने ब्रह्मा जी कीआराधना करी तब ब्रह्मा जी ने दोनों को रोक
पाने में असर्थता बताई। तब सबने मिलकरपरा-शक्ति भगवती माँ दुर्गाजी की
अराधना करी तब माताजी ने दोनों पक्षों को शांतकिया। श्री कृष्ण ने कहा की
वे तो केवल अपने पौत्र अनिरुद्ध की आज़ादी चाहते हैं तोशिवजी ने भी कहा की
वे केवल अपने वचन की रक्षा कर रहे हैं और बाणासुर का साथ देरहे हैं, उनकी
केवलयही इच्छा है की श्री कृष्ण बाणासुर के प्राण न लेवें। तब श्री कृष्ण
कहा की आपकीइच्छा ही मेरा दिया हुआ वचन है की मेने पूर्वावतार में बाणासुर
के पूर्वज बलि के पूर्वजप्रहलाद को यह वरदान दिया था की दानव वंश के अंत
में उसके परिवार का कोई भी सदस्यउनके विष्णु के अवतार के हाथो कभी नहीं
मरेगा। माँ भगवती की कृपा से श्री कृष्ण कीबात सुनकर बाणासुरआत्मग्लानी
होने लगी औरअपनी गलती का एहसास होने लगा की जिसकी वजह से ही दोनोंदेवता
लड़ने को उतारू हो गए थे। बाणासुर ने श्री कृष्ण से माफ़ी मांग ली। बाणासुर
केपराजित होते ही शिवजी का वचन सत्य हुआ की बाणासुर श्री कृष्ण से पराजित
होयेगालेकिन वो उसका साथ देंगे और उसके प्राण बचायेंगे।
तत्पश्चातशिवजी
और श्री कृष्ण ने भी एक दुसरे से माफ़ी मांगी और एक दुसरे की महिमामंडन
करी।माता पराशक्ति ने तब्दोनो को आशीर्वाद दिया जिससे दोनों एक दुसरे में
समा गए तब नारद जी ने सभी को कहा की आज से केवलएक इश्वर हरी-हरा हो गए
हैं। फिर बाणासुर ने उषा-अनिरुद्ध का विवाह कर दिया और सब सुखी-सुखीरहने
लगे। तत्पश्चात बाणासुर नर्मदा नदी के पास गया और शिवजी की तपस्या करने
लगाकी उन्होंने उसके प्राणों की रक्षा करी और युद्ध में उसका साथ दिय।
शिवजी ने प्रकटहो कर उसकी इच्छा जानी तब उसने कहा की वे उसको अपने डमरू
बजाने की कला का आशीर्वाददेवें और उसको अपने विशेष सेवकों में जगह भी देवें
तब शिवजी ने कहा की उसके द्वारा पूजे गए शिवजी के लिंगो कोबाणलिंग के नाम
से जाना जायेगा और उसकी भक्ति को हमेशा याद रखा जायेगा।
अबआगे
की कथा इस प्रकार है की जब अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया और अंत में
कृष्ण-शिव एकमें समां गए तो भी बाणासुर की प्रवृति नहीं बदली। बाणासुर अब
और भी ज्यादा क्रूरहो गया। बाणासुर अब जान गया था की श्री कृष्ण कभी उसके
प्राण नहीं ले सकते औरशिवजी उसके किले के रक्षकहैं तो वह भी ऐसा नहीं
करेंगे।तब सभी क्षत्रिय राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों नेयज्ञ किया।
यज्ञ की अग्नि में से माँ पारवती जी एक छोटी सी कुंवारी कन्या के
रूपमें प्रकटहुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं से वर मांगने को कहा।

तबसभी
राजपूत राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की कामना करी (जिनमे
विशेषकर संभवतः सिसोदिया वंश के पूर्वज प्राचीन सूर्यवंशी राजा भी रहे
होंगे) तबमाता जी ने सभी राजाओं-ऋशिमुनियों और देवताओं को आश्वस्त किया की
वे सब धैर्य रखेंबाणासुर का वध समय आने पर अवश्य मेरे ही हाथो होगा। यह वचन
कहकर माँ वहां से उड़करभारत के दक्षिणी छोर पर जा कर बैठ गयीं जहा पर
त्रिवेणी संगम है। (पूर्व में बंगाल की खाड़ी-पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण
में भारतीय महासागरहै) बायण माता की यह लीला बाणासुरको किले से दूर लाने
की थी ताकि वह शिवजी से अलग हो जाये। आज भी उस जगह पर बायणमाता को दक्षिण
भारतीय लोगो द्वारा कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता हैऔर उस जगह का नाम
भी कन्याकुमारी है।
जब पारवती जी के अवतार देवी
माँ थोड़े बड़े हुए तब उनकी सुन्दरतासे मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह
करने कृयरत हुए जिसपर माताजी भी राजी हो गए।विवाह की तय्यरिया होने लगी।
किन्तु तभी नारद मुनि यह सब देख कर चिंतित हो गए कीयह विवाह अनुचित है।
बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पारवती जी का अवतार होने के
बावजूत उनसे भिन्न हैं, यदि उन्होंने विवाह किया तो
वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी क्यूंकिबाणासुर केवल परम सात्विकदेवी के
हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था। तब उन्होंने देवी माता के पास जाकर
कहा ही जो शिवजी आपसे विवाह करने आ रहे हैं वो शिवजी नहीं है अपितु मायावी
बाणासुरहै। नारद मुनि ने माता जी को कहा की असलियत जानने के लिए वे शिवजी
से ऐसी चीज़मांगे जो सृष्टि में कही पे भी आसानी से ना मिले - बिना आँख का
नारियल, बिना जोड़ का गन्ना और बिना रेखाओं वालापान का पत्ता। किन्तु शिवजी
ने ये सब चीजें लाकर माता जी को दे दी।
जबनारद जी
की यह चाल काम नहीं आई तब फिर उन्होंने भोलेनाथ को छलने का उद्योग किया।
सूर्योदय सेपहले पहले शादी का महूरत था जब शिवजी रात को बारात लेकर निकले
तब रस्ते में नारद मुनि मुर्गेका रूप धर के जोर जोर से बोलनेलगे जिससेशिवजी
को लगा की सूर्योदय होने वाला है भोर हो गयी है अब विवाह की घडी निकल
चुकीहै सो वे पुनः हिमालय वापिसचले गए। देवी माँ दक्षिण में त्रिवेणी स्थान
पर इंतज़ार करती रह गयी। जब शिवजी नहींआये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं।
उन्होंने शादी का सब खाना फेक दिया और उन्होंनेजीवन परियन्त सात्विक रहने
का प्राण ले लिया और सदैव कुंवारी रहकर तपस्या में लींहो गयी।
इश्वरकी
लीला से कुछवर्षो बाद बाणासुर को माताजी की माया का पता चला तब वह खुद
माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना करदिया। जिसपर
बाणासुर क्रुद्ध हुआ वह पहले से ही अति अभिमान हो कर भारत वर्ष में क्रूरता
बरसा रहा था। तब उसने युद्ध केबल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी।
जिसमे देवी माँ ने प्रचंड रूप धारण कर उसकीपूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया
और अपने चक्र से बाणासुर का सर कट के उसका वध करदिया। मृत्यु पूर्व बाणासुर
ने मत परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने जीवन भर केपापों के लिए क्षमा
मांगी और मोक्ष की याचना करी जिसपर देवी माता ने उसकी आत्मा कोमोक्ष
प्रदान कर दिया। यही देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण माता
या बाण माता के नाम से जाना जाता है। जिसप्रकार नाग्नेचियामाता ने राठौड़
वंश की रक्षा करी थी उसी प्रकार इन्ही माता की कृपा से सिसोदियाचूण्डावत
कुल के सूर्यवंशी पूर्वजों के वंश को बायण माता ने बचाया।
महा-मायादेवी
माँ दुर्गा की असंख्य योगिनियाँ हैं और सबकी भिन्न भिन्न निशानिय और
स्वरुपहोते हैं। जिनमे बायणमाता पूर्ण सात्विक और पवित्र देवी हैं जो
तामसिक और कामसिक सभी तत्वों से दूरहैं। माँ पारवती जी का ही अवतार होने के
बावजूत बायण माता अविवाहित देवी हैं। तथापरा-शक्ति देवी माँ दुर्गा का अंश
एक योगिनी अवतारी देवी होने के बावजूत भी बायण माता तामसिक तत्वों से भी दूर हैंअर्थात इनके काली-चामुंडा माता की तरह बलिदान भी नहीं चढ़ता है।

© मयूराज सिंह चूंडावत, डूंगरपुर
Subscribe to:
Comments (Atom)


















