Monday, 13 March 2017

बाणासुर और बायण माताजी का प्राचीन इतिहास

पुराणों के अनुसारहजारों वर्षों पूर्व बाणासुर नाम का एक दैत्य जन्मा जिसकी भारत में अनेकराजधानियाँ थी। पूर्व में सोनितपुर (वर्तमान तेजपुर, आसाम) में थीउत्तर में बामसू (वर्तमान लमगौन्दी, उत्तराखंड) मध्यभारत में बाणपुर मध्यप्रदेश में भी बाणासुर का राज था। बाणासुर बामसू में रहता था।बाणासुर को कही कहीराजा भी कहा गया है और उसके मंदिर भी मौजूद हैं जिसको आज भी उत्तराखंड के कुछगावों में पूजा जाता है।

संभवतः प्राचीनसनातन भारत में मनुष्य जब पाप के रास्ते पे चलकरअतियंत अत्याचारी हो जाता था तब उसे असुर की श्रेणी में रख दिया जाता था क्यूंकिलोगों को यकीन हो जाता था की अब उसका काल निकट है और वह अवश्य ही प्रभु के हाथो मरजायेगा। यही हाल रावन का भी था वह भी एक महाज्ञानी-शक्तिशाली-इश्वर भक्त राजा था, किन्तु समय के साथ वह भी अभिमानी हो गया था औरउसका भी अंत एक असुर की तरह ही हुआ। किन्तु यह भी सत्य है की रावण को आज भी बहुतसे स्थानों पैर पूजा जाता है, दक्षिण भारत-श्रीलंका के साथ साथ उत्तर भारत में भी उसके कई मंदिर हैं जिनमे मंदसौर(मध्यप्रदेश) में भी रावन की एक विशाल प्रतिमा हैजिसकी लोग आज भी पूजा करते हैं।

बाणासुर भगवान्शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे हजारों भुजाओं की शक्ति प्राप्तथी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर ने कहा की आप मेरे किले केपहरेदार बन जाओ। यह सुन शिवजी का बड़ा ग्लानी-अपमान हुआ लेकिन उन्होंने उसका वरदानमन लिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर परम बलशाली होकर सम्पूर्ण भारत औरपृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा और कुछ देवता तक भयभीत रहने लगे। बाणासुरअजय  हो चुका था, कोई उससे युद्ध करने आगे नहीं आता था। एक दिन बाणासुर को अचानक युद्ध करने की तृष्णाजागी। तब उसने स्वयं शिवजी से युद्ध करने की इच्छा करी। बाणासुर के अभिमानी भाव कोदेख कर शिवजी ने उससे कहा की वो उससे युद्ध नहीं करना चाहते क्यूंकि वो उनका शिष्यहै, किन्तु उन्होंने उसे कहा की तुम विचलित न होवोतुम्हे पराजित करने वाला व्यक्ति कृष्ण जनम ले चुका है। यह सुन कर बाणासुर भयभीतहो गया। और उसने शिवजी की तपस्या करी और अपनी हजारों भुजाओं से कई सौ मृदंग बजायेजिससे शिवजी प्रसन्न हो गए। बाणासुर ने उनसे वरदान माँगा की वे कृष्ण से युद्ध मेंउसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे और हमेशा की तरह उसके किले केपहरेदार बने रहेंगे।

समय बीतता गया औरश्री कृष्ण ने द्वारिका पे अधिकार करा और एक शक्तिशाली सेना बना ली। उधर बाणासुरके एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। उषा से शादी के लिए बहुत से राजा महाराजा आएकिन्तु बाणासुर सबको तुच्छ समझकर उषा के विवाह के लिए मन कर देता और अभिमानपूर्वकउनका अपमान कर देता था। बाणासुर को भय था की उषा उसकी इच्छा के विपरीतकिसी से विवाह न कर ले इसलिए बाणासुर ने एक शक्तिशाली अग्निगड़(तेजपुर, वर्तमान आसाम) बनवाया और उसमे उषा को कैद करनज़रबंद दिया। 

अब इसे संयोग कहोया श्री कृष्ण की लीला, एक दिन उषा को स्वप्न में एक सुन्दर राजकुमारदिखा यह बात उसने अपनी सखी चित्रलेखा को बताई। चित्रलेखा को सुन्दर कला-कृतियाँबनाने का वरदान प्राप्त था, उसने अपनी माया से उषा की आँखों में देख कर उसके स्वप्न दृश्य कोदेख लिया और अपनी कला की शक्ति से उस राजकुमार का चित्र बना दिया। चित्र देख उषाको उससे प्रेम हो गया और उसने कहा की यदि ऐसा वर उसे मिल जाये तो ही तो ही उसेसंतोष होगा। चित्रलेखा ने बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्धका है। तब चित्रलेखा ने अपनी शक्ति से अनिरुद्ध को अदृश्य कर के उषा के सामनेप्रकट कर दिया तब दोनों ने ओखिमठ नमक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहाँ आजभी उषा-अनिरुद्ध नाम से एक मंदिर व्याप्त है। जब यह खबर बाणासुर को मिली तो उसेबड़ा क्रोद्ध आया और उसने अनिरुद्ध और उषा को कैद कर लिया। 

जबकई दिनों तक अनिरुद्ध द्वारिका में नहीं आया तो श्री कृष्ण और बलराम व्याकुल होउठे और उन्होंने उसकी तलाश शुरू की और अंत में जब उन्हें नारदजी द्वारा  सत्य का पता चला तो उन्होंने बाणासुर परहमला कर दिया। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ जिसमे दोनों ओर के महावीरों ने शौर्य का परिचयदिया। अंत में जब बाणासुर हारने लगा तो उसने शिवजी की आराधना करी।

भक्तके याद करने से शिवजी प्रकट हो गए और श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। युद्ध कितना विनाशक था इसका ज्ञान इसीबात से हो जाता है की शिवजी अपने सभी अवतारों और साथियों रुद्राक्ष, वीरभद्र, कूपकर्ण, कुम्भंदा सहित बाणासुर के सेनापति बनेऔर साथ में सेना के सबसे आगे नंदी पे उनके पुत्र श्री गणेश और कार्तिकेय भी थे।उधर दूसरी तरफ श्री कृष्णा के साथ बलराम, प्रदुम्न, सत्याकी, गदा, संबा, सर्न,उपनंदा, भद्रा अदि कई योद्धा थे।इस भयंकर युद्धमें शिवजी ने श्री कृष्ण की सेना के असंख्य सेनिको का नाश किया और श्री कृष्ण नेबाणासुर के असंख्य सैनिको का नाश किया। शिवजी ने श्री कृष्ण पर कई अस्त्र-शस्त्रचलाये जिनसे श्री कृष्ण को कोई हानि नहीं हुयी और श्री कृष्ण ने जो अस्त्र-शास्त्रशिवजी पर चलाये उनसेशिवजी को कोई हनी नहीं हुयी। तब अंत में शिवजी ने पशुपतास्त्र से श्री कृष्ण पर वरकिया तो श्री कृष्ण ने भी नारायणास्त्र से वर किया जिसका किसी को कोई लाभ नहींहुआ। फिर श्री कृष्ण ने शिवजी को निन्द्रास्त्र चला के कुछ देर के लिए सुला दिया। इससे बाणासुर की सेना कमजोरहो गयी। प्रदुम्न ने कार्तिकेय को घायल कर दिया तो दूसरी तरफ बलराम जी ने कुम्भंदाऔर कूपकर्णको घायल कर दिया। यह देख बाणासुर अपने प्राण बचा कर भागा। श्री कृष्ण ने उसे पकड़कर उसकी भुजाएँ कटनी शुरू कर दी जिनसे वह अभिमान करता था। 

जबबाणासुर की सारी भुजाएँ कट गयी थी और केवल चार शेषरह गयी थी तब शिवजीअचानक जाग उठे और श्री कृष्ण द्वारा उन्हें निंद्रा में भेजने और बाणासुर की दशाजानकर बोहोत क्रोद्धित हुए। शिवजी ने अंत में अपना सबसे भयानक शस्त्र ''शिवज्वर अग्नि'' चलाया जिससे सारा ब्रह्माण अग्नि मेंजलने लगा और हर तरफ भयानक जावर बिमारिय फैलने लगी। यह देख श्री कृष्ण को न चाहते हुए भी अपना आखिरी शास्त्र ''नारायनज्वर शीत'' चलाया। श्री कृष्ण के शास्त्र से ज्वरका तो नाश हो गया किन्तु अग्नि और शीत का जब बराबर मात्र में विलय होता है तोसम्पूर्ण श्रृष्टि का नाश हो जाता है। 

जब पृथ्वी और ब्रह्माण बिखरने लगे तब नारद मुनि और समस्त देवताओं, नव-ग्रहों, यक्ष और गन्धर्वों ने ब्रह्मा जी कीआराधना करी तब ब्रह्मा जी ने दोनों को रोक पाने में असर्थता बताई। तब सबने मिलकरपरा-शक्ति भगवती माँ दुर्गाजी की अराधना करी तब माताजी ने दोनों पक्षों को शांतकिया। श्री कृष्ण ने कहा की वे तो केवल अपने पौत्र अनिरुद्ध की आज़ादी चाहते हैं तोशिवजी ने भी कहा की वे केवल अपने वचन की रक्षा कर रहे हैं और बाणासुर का साथ देरहे हैं, उनकी केवलयही इच्छा है की श्री कृष्ण बाणासुर के प्राण न लेवें। तब श्री कृष्ण कहा की आपकीइच्छा ही मेरा दिया हुआ वचन है की मेने पूर्वावतार में बाणासुर के पूर्वज बलि के पूर्वजप्रहलाद को यह वरदान दिया था की दानव वंश के अंत में उसके परिवार का कोई भी सदस्यउनके विष्णु के अवतार के हाथो कभी नहीं मरेगा। माँ भगवती की कृपा से श्री कृष्ण कीबात सुनकर बाणासुरआत्मग्लानी होने लगी औरअपनी गलती का एहसास होने लगा की जिसकी वजह से ही दोनोंदेवता लड़ने को उतारू हो गए थे। बाणासुर ने श्री कृष्ण से माफ़ी मांग ली। बाणासुर केपराजित होते ही शिवजी का वचन सत्य हुआ की बाणासुर श्री कृष्ण से पराजित होयेगालेकिन वो उसका साथ देंगे और उसके प्राण बचायेंगे।

तत्पश्चातशिवजी और श्री कृष्ण ने भी एक दुसरे से माफ़ी मांगी और एक दुसरे की महिमामंडन करी।माता पराशक्ति ने तब्दोनो को आशीर्वाद दिया जिससे दोनों एक दुसरे में समा गए तब नारद जी ने सभी को कहा की आज से केवलएक इश्वर हरी-हरा हो गए हैं। फिर बाणासुर ने उषा-अनिरुद्ध का विवाह कर दिया और सब सुखी-सुखीरहने लगे। तत्पश्चात बाणासुर नर्मदा नदी के पास गया और शिवजी की तपस्या करने लगाकी उन्होंने उसके प्राणों की रक्षा करी और युद्ध में उसका साथ दिय। शिवजी ने प्रकटहो कर उसकी इच्छा जानी तब उसने कहा की वे उसको अपने डमरू बजाने की कला का आशीर्वाददेवें और उसको अपने विशेष सेवकों में जगह भी देवें तब शिवजी ने कहा की उसके द्वारा पूजे गए शिवजी के लिंगो कोबाणलिंग के नाम से जाना जायेगा और उसकी भक्ति को हमेशा याद रखा जायेगा।

अबआगे की कथा इस प्रकार है की जब अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया और अंत में कृष्ण-शिव एकमें समां गए तो भी बाणासुर की प्रवृति नहीं बदली। बाणासुर अब और भी ज्यादा क्रूरहो गया। बाणासुर अब जान गया था की श्री कृष्ण कभी उसके प्राण नहीं ले सकते औरशिवजी उसके किले के रक्षकहैं तो वह भी ऐसा नहीं करेंगे।तब सभी क्षत्रिय राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों नेयज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में से माँ पारवती जी एक छोटी सी कुंवारी कन्या के रूपमें प्रकटहुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं से वर मांगने को कहा।

तबसभी राजपूत राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की कामना करी (जिनमे विशेषकर संभवतः सिसोदिया वंश के पूर्वज प्राचीन सूर्यवंशी राजा  भी रहे होंगे) तबमाता जी ने सभी राजाओं-ऋशिमुनियों और देवताओं को आश्वस्त किया की वे सब धैर्य रखेंबाणासुर का वध समय आने पर अवश्य मेरे ही हाथो होगा। यह वचन कहकर माँ वहां से उड़करभारत के दक्षिणी छोर पर जा कर बैठ गयीं जहा पर त्रिवेणी संगम है। (पूर्व में बंगाल की खाड़ी-पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण में भारतीय महासागरहै) बायण माता की यह लीला बाणासुरको किले से दूर लाने की थी ताकि वह शिवजी से अलग हो जाये। आज भी उस जगह पर बायणमाता को दक्षिण भारतीय लोगो द्वारा कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता हैऔर उस जगह का नाम भी कन्याकुमारी है। 

जब पारवती जी के अवतार देवी माँ थोड़े बड़े हुए तब उनकी सुन्दरतासे मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह करने कृयरत हुए जिसपर माताजी भी राजी हो गए।विवाह की तय्यरिया होने लगी। किन्तु तभी नारद मुनि यह सब देख कर चिंतित हो गए कीयह विवाह अनुचित है। बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पारवती जी का अवतार होने के बावजूत उनसे भिन्न हैंयदि उन्होंने विवाह किया तो वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी क्यूंकिबाणासुर केवल परम सात्विकदेवी के हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था। तब उन्होंने देवी माता के पास जाकर कहा ही जो शिवजी आपसे विवाह करने आ रहे हैं वो शिवजी नहीं है अपितु मायावी बाणासुरहै। नारद मुनि ने माता जी को कहा की असलियत जानने के लिए वे शिवजी से ऐसी चीज़मांगे जो सृष्टि में कही पे भी आसानी से ना मिले - बिना आँख का नारियल, बिना जोड़ का गन्ना और बिना रेखाओं वालापान का पत्ता। किन्तु शिवजी ने ये सब चीजें लाकर माता जी को दे दी। 

जबनारद जी की यह चाल काम नहीं आई तब फिर उन्होंने भोलेनाथ को छलने का उद्योग किया। सूर्योदय सेपहले पहले शादी का महूरत था जब शिवजी रात को बारात लेकर निकले तब रस्ते में नारद मुनि मुर्गेका रूप धर के जोर जोर से बोलनेलगे जिससेशिवजी को लगा की सूर्योदय होने वाला है भोर हो गयी है अब विवाह की घडी निकल चुकीहै सो वे पुनः हिमालय वापिसचले गए। देवी माँ दक्षिण में त्रिवेणी स्थान पर इंतज़ार करती रह गयी। जब शिवजी नहींआये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं। उन्होंने शादी का सब खाना फेक दिया और उन्होंनेजीवन परियन्त सात्विक रहने का प्राण ले लिया और सदैव कुंवारी रहकर तपस्या में लींहो गयी।

इश्वरकी लीला से कुछवर्षो बाद बाणासुर को माताजी की माया का पता चला तब वह खुद माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना करदिया। जिसपर बाणासुर क्रुद्ध हुआ वह पहले से ही अति अभिमान हो कर भारत वर्ष में क्रूरता बरसा रहा था। तब उसने युद्ध केबल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी। जिसमे देवी माँ ने प्रचंड रूप धारण कर उसकीपूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया और अपने चक्र से बाणासुर का सर कट के उसका वध करदिया। मृत्यु पूर्व बाणासुर ने मत परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने जीवन भर केपापों के लिए क्षमा मांगी और मोक्ष की याचना करी जिसपर देवी माता ने उसकी आत्मा कोमोक्ष प्रदान कर दिया। यही देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण माता या बाण माता के नाम से जाना जाता है। जिसप्रकार नाग्नेचियामाता ने राठौड़ वंश की रक्षा करी थी उसी प्रकार इन्ही माता की कृपा से सिसोदियाचूण्डावत कुल के सूर्यवंशी पूर्वजों के वंश को बायण माता ने बचाया। 

महा-मायादेवी माँ दुर्गा की असंख्य योगिनियाँ हैं और सबकी भिन्न भिन्न निशानिय और स्वरुपहोते हैं। जिनमे बायणमाता पूर्ण सात्विक और पवित्र देवी हैं जो तामसिक और कामसिक सभी तत्वों से दूरहैं। माँ पारवती जी का ही अवतार होने के बावजूत बायण माता अविवाहित देवी हैं। तथापरा-शक्ति देवी माँ दुर्गा का अंश एक योगिनी अवतारी देवी होने के बावजूत भी बायण माता तामसिक तत्वों से भी दूर हैंअर्थात इनके काली-चामुंडा माता की तरह बलिदान भी नहीं चढ़ता है।



 © मयूराज सिंह चूंडावत, डूंगरपुर
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